Thursday, March 10, 2016

चचा सैम को ख़त मंटो साहब के भतीजे की तरफ़ से: इंटॉलरन्स और पॉल्यूशन की खबर

अंकल सैम को फिर से सलाम!

बहुत दिनों बाद आपसे गुफ़्तगू हो रही है। काफ़ी दिनों तक ना मैं आपको ख़त लिख पाया ना आप ही अपनी मोहब्बत दिखा पाए। उम्मीद करता हूँ आप मुझे याद तो कर रहे होंगे। आपको तो पता ही है चचा मैं आपकी मोहब्बत में पागल रहता हूँ।

चचाजान, इधर हिन्दोस्तान के मिज़ाज में ग़ज़ब की तब्दीली आयी है। दो बातों का हल्ला है- एक तो ये कि देश अचानक से इंटॉलरंट हो गया है, और दूसरा ये कि दिल्ली में पोल्यूशन बढ़ी है। और मंटो साहब का ये भतीजा दिल्ली में ही रहता है। आज दिल की बात कहता हूँ चचा- बस अब बुला लो अपने पास। ये देश ग़ज़ब बेवक़ूफ़ हो चुका है। आपसे कुछ भी नहीं सीख पा रहा।

पहली बात करते हैं इंटॉलरंट वाली बहस पर। चचा, ये बताइए कि आज तक आपको किसी ने इंटॉलरंट कहा? और जो किसी छोटे देश (माने बेवक़ूफ़ देश) ने कह भी दिया तो उसके साथ क्या किया गया? अब आपके फ़ोर्मूले को अगर हिन्दोस्तान के आला वज़ीर अपना रहे हैं तो क्या ग़लत है? कुछ ग़लत नहीं है! मुझे तो कई वियतनाम याद आते हैं चचा। और तो और जो लोग आपकी अपनी सर ज़मीन पर आपके ख़िलाफ़ बोलते थे उन्हें भी आपने ग़ज़ब तरीक़े से चुप करवा दिया था! वाह वाह! चचा हों तो आपकी तरह। आपने कितना सहा है चचा। आँखों में आँसू आ जाते हैं सब कुछ याद करके। अब ऐसे में आपको कोई इंटॉलरंट बोल दे तो कैसे सहेंगे हम!

दिक़्क़त है कि यहाँ- माने हिन्दोस्तान में- ये लोग जो मोर्चा सम्भाले हुए हैं वो काम ठीक से नहीं कर पा रहे। करेंगे भी कैसे? ये मोदी तो हमेशा घूमते रहता है। इसकी भी ग़ज़ब की क़िस्मत है चचा। आपका ये भतीजा कितने सालों से मुल्क के बाहर भागना चाहता है- लेकिन नहीं। आप तो वीज़ा लगवा नहीं रहे और ये मोदी हर दूसरे दिन घूम कर आ जाता है। साँप समझते हैं ना- स्नेक- लोट जाता है सीने पर।

ख़ैर दूसरे मुद्दे के बारे में बताता चलूँ। दिल्ली शहर की हवा में ज़हर घुल गया है! ना ना- वैसा नहीं जैसा आपने जापान में घोला था (वो भी ग़ज़ब की करतबबाज़ी थी चचा)। ये थोड़ा अलग है। मामला ये है कि दिल्ली में मोटर गाड़ियाँ बहुत हो गयी हैं। इतनी की पूछिए मत! अलावा इसके अलग-अलग कारख़ाने भी बहुत लग चुके हैं। कुछ काम-काज तो इधर भी हो रहा है। अब ये सभी कुछ पता नहीं ऐसा क्या करते हैं कि हवा में ज़हर घुल जाती है। ऐसा मैं नहीं कहता- केजरीवाल और कुछ और ख़ास आदमी कहते हैं। इन्होंने बोला कि ये शहर दुनिया का सबसे ज़हरीला शहर है! मुझे तो बस आपकी याद आ गयी चचा! ये बेवक़ूफ़ क्या समझें ज़हरीली हवा क्या होती है। मंटो साहब ने आपको जो ख़त लिखे थे उसमें शायद उन्होंने इस सिलसिले में बात की थी- ज़रा ख़त दुबारा पढ़िएगा। ज़हरीली हवा तो जापान, वियतनाम, इराक़, अफगानिस्तान, फ़िलिस्तीन में फैली थी! हाँ मानना पड़ेगा आपके घर कभी नहीं फैली, बल्कि आपने सभी जगह से ज़हरीली हवा का सफ़ाया करवाया!

चचा, ये केजरीवाल तो मेरी बात नहीं सुनता। ये कुछ अजीब फ़ोर्मूले अपना रहा है। एक दिन औड नम्बर की गाड़ियाँ चलाने की बात करता है तो एक दिन ईवेन। सरफिरा मालूम होता है चचा। आप ही क्यों नहीं आ जाते और शहर से ज़हर साफ़ कर देते? आपको तो इस काम में महारत हासिल है। आप समझाइए इस सरफिरे केजरीवाल को। दिल्ली शहर के लोग भी बड़े बेवक़ूफ़ हैं। बात करता हूँ तो मुँह से काइयाँ आ जाती है! बस आपका ही सहारा है। ये पूरा देश आपकी राह देख रहा है। आप समझ ही गए होंगे यहाँ बहुत सारे नए बाज़ार लगाए जा सकते हैं।

एक आइडिया है- आप अच्छी हवा बेचना शुरू क्यों नहीं कर देते? जब पानी बिक सकती है तो हवा भी बेचा जा सकता होगा। माहौल तो बन चुका है- आप बाज़ार लगा दीजिए। कोला-पेप्सी की तरह साँस भी बेचिए! वाह वाह! मज़ा आ जाएगा।

लेकिन याद रहे चचा, इस देश में कुछ नहीं रखा। निहायत बेवक़ूफ़ लोग हैं। इस देश को जला दीजिए और हमको अपने पास बुला लीजिए।

जल्द मुलाक़ात की उम्मीद में, 
मंटो साहब का भतीजा।

First published on Facebook on December 9, 2015

As Chhath changes character in Bihar, for Biharis in Delhi it's about retaining an identity



I have been away from Bihar for almost a decade. For all these years I have wanted to visit my hometown during the Chhath festival, but for some reason this never happens. The Wednesday morning was the first time that I visited a festival celebration site in Delhi, away from family and with strangers and few familiar faces. 
Chhath has been the most revered festival for our family. My grandmother used to perform every ritual. My childhood memories include celebrating Chhath in Chapra at the ghats of the Ganges. I vividly remember the early morning truck rides of the entire neighbourhood to the ghats of the river, some 30 kilometers away from our home. Thousands of people used to gather at the ghats to offer prayers to the Sun god. Everywhere you could listen the Chhath songs. Women sang folk songs. Caste was not a barrier at any point. People from every community offered prayers together, dipped in the holy water together and shared the enthusiasm. 
That was then. Away from Bihar, things were different. I witnessed the festival rituals in a small, make-shift pond in an isolated corner of a farmhouse in Sultanpur in south Delhi. The owner of the farmhouse had given permission to local Biharis to use his premises. I got to know about it from my cook Gudiya Di. She had taken the vow of Chhath and asked me to come for the rituals as I am away from my hometown. A total of 10 families were using the premises to offer prayers. The makeshift pond was too small to accommodate all the women at once. The water was too cold. But, people were happy, as they were able to celebrate the festival in their vicinity. Else everybody has to travel to the Chhatarpur temple complex, where many people offer prayers. 
There was something missing from the festival. Nobody was singing folk songs – the quintessential Chhath songs. When I asked a few people the reason for it, the reply was saddening: “We do not know the songs.” A young man in his early twenties smilingly said, in his Delhi accent, “We are not true Biharis. This festival is our only identity and connection with Bihar. We are Delhi-wallas.” 
Sometime back I had a discussion with the father of a dear friend. He is from Bihar but has been residing in Goa for the last three decades. “I do not think you people ever experienced, or can experience, the real Chhath festival. I remember the festival from the 1940s and 1950s, which can now only be written about in a book.” he told me. Later he shared notes from his childhood memories. He said, “After an elaborate Durga Puja and Deepawali, Chhath was a festival designed by our forefathers essentially to clean the waste materials collected in villages. Just imagine the cost a municipal body would incur if it has to clean every nook and corner of so many villages! We used to clean our entire village in the name of religion. Religion was the only binding force at that time.” He continued, “Things have changed a lot in the recent past. I visited my village a few years back during Chhath. I saw people celebrating the festival in isolation – only with their families. It defeats the purpose of a festival like Chhath, which is meant for social inclusion. The waste left after the festival is humongous. It too defeats the purpose of a festival, which propagates cleanliness to a great extent.” 
Few days back I asked Gudiya Di why she celebrates Chhath in Delhi despite keeping ill health. Her reply was an eye opener. She said, “This is the only way I can reconnect with Bihar. We do not go back there. But, we were born there. Our childhood was spent there. This festival gives me strength, like nothing else does. This is part of my identity.” It is a futile attempt to rationalise faith; and, when faith gives you a sense of belongingness, there is no reason to rationalise it.

First published on Takhty.in on November 19, 2015

Permalink: http://takhty.in/en/article/chhath-changes-character-bihar-biharis-delhi-its-about-retaining-identity

Monday, November 2, 2015

बिहार चुनाव से ग़ायब मुद्दे




बिहार चुनाव अपने अंतिम चरण में पहुँच चुका है। इस चुनाव को कई विश्लेषक प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष की राजनीतिक समझ और सूझबूझ की अग्नि परीक्षा मान रहे हैं। ये नीतीश कुमार और लालू यादव के पच्चीस साल के राज का भी इम्तिहान है। लेकिन दरअसल ये बिहार की जनता की परीक्षा थी। 

हर चुनाव अपने साथ एक बदलाव का वादा लेकर आता है। पिछले छः दशक में अनगिनत चुनाव अपने साथ भारत के भविष्य को बदलने का वादा लेकर आए। लेकिन देश का वर्तमान इस बात की गवाही देता है कि चुनावी बयानबाज़ी सच्चाई नहीं होते। बिहार चुनाव में भी अनगिनत वादे किए जा चुके हैं। अब देखना है कि राजनेता अपने वादों को लेकर कितने ईमानदार हैं। 

बिहार में मुद्दों की कमी नहीं है। लेकिन कुछ ज़रूरी मुद्दे इस चुनाव से ग़ायब दिखे। बिहार का युवा वर्ग अब भी बेहतर पढ़ाई के लिए और बेहतर रोज़गार के अवसर के लिए दूसरे राज्यों का मुँह देखता है। पिछले दस सालों में पलायन पर बात हुयी, लेकिन ये चुनावी मुद्दा नहीं बन पाया। 

ऋषिकेश रोशन सिविल परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं। इन्होंने पटना विश्वविद्यालय से स्नातक किया, और सिविल परीक्षा की तैयारी करने के लिए दिल्ली आए। बिहार से पलायन और चुनावी वादों के ऊपर ऋषिकेश कहते हैं, "मेरे स्कूल के दोस्तों में से 90 प्रतिशत लोग अब बिहार में नहीं हैं। सभी ने अपनी पढ़ाई दिल्ली, पुणे या बंगलोरे से की है। बिहार में वो अवसर नहीं हैं जो किसी को वापस बुला सकें। भाजपा अवसर बनाने की बात करती है, लेकिन देखना होगा कि कितने अवसर बन पाते हैं। राजद और जदयू वापस से जंगल राज की तरफ़ इशारा करते हैं।" 

भाजपा के कई नेताओं ने, और स्वयं प्रधानमंत्री ने बिहार में उद्योग लाने की बात की है। लेकिन नीतीश कुमार की सरकार (जिसने आठ साल तक भाजपा भी सहयोगी थी) ने कई उद्योग-कार्यक्रमों का शुभारम्भ किया है। जब तक जदयू-भाजपा अलग नहीं हुये थे पूरा देश बिहार की बदलती परिभाषा देख रहा था। युवा उद्योगकर्मी सिद्धार्थ मोहन कहते हैं, "भाजपा ने अलग-अलग राज्यों में भ्रम फैलाया है कि वो बदलाव लाना चाहते हैं। अभी जिस भी राज्य में भाजपा सरकार बनी है वहाँ कोई मूलभूत बदलाव नहीं दिख रहे। बिहार चुनाव से भी असली मुद्दे ग़ायब किए जा चुके हैं। अप्रवासी बिहारियों को वापस बुलाने की बात कोई नहीं कर रहा। इससे जुड़े ज़रूरी अवसर कोई नहीं बना रहा। भाजपा धर्म की राजनीति कर रही है। बिहार 1990 तक कांग्रेस शासित था, और देश के अग्रणी राज्यों में शुमार था। फ़िलहाल कांग्रेस चुनावी रेस से बाहर है, लेकिन जदयू और राजद के साथ दोबारा बिहार को गति दे सकती है।" सिद्धार्थ मोहन ने स्नातक और एम.बी.ए बंगलोरे से किया है, और फ़िलहाल बिहार में ही रह रहे हैं। 

बिहार में मध्यम वर्ग़िय पलायन से कहीं अधिक निम्न वर्ग़िय पलायन हुआ है। किसी भी महानगर में मज़दूर, रिक्शाचालक, काम करने वाली बाई या सिक्योरिटी गार्ड- अधिकतर मौक़ों पर- बिहार से होते हैं। निम्न वर्ग़िय पलायन 90 के दशक में ज़्यादा हुआ, जो अब भी लगातार जारी है। बिहार की 90 प्रतिशत जनता ग्रामीण है, और कई दशकों से कृषि से ही जीवन यापन कर रहे हैं। लेकिन पिछले दो दशक में देश भर में जो दशा कृषि उद्योग की हुयी है, उसका ख़ामियाज़ा प्रत्यक्ष रूप से बिहार के किसानों को भुगतना पड़ा है। 

गुड़िया दिल्ली में 'मेड' का काम करती हैं। मूल रूप से बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर की रहने वाली गुड़िया कहती हैं, "बिहार में बदलाव तो आया है, लेकिन वापस जाकर वहाँ कुछ काम नहीं हैं हमारे लिए। नीतीश कुमार ने 'छोटे जात' के लिए काफ़ी काम किया है। लालू यादव ने भी काम किया था। लेकिन ऐसा दिखाया गया कि सिर्फ़ गुंडागर्दी हुआ है।" गुड़िया जैसी कई और महिलायें हैं जो महानगर में पलायन तो कर चुकी हैं लेकिन बिहार में आए बदलाव को महसूस करने की बात करती हैं। 

एक और मुद्दा जो इस चुनाव से पूर्ण रूप से ग़ायब रहा वो है अपराधियों का चुनाव लड़ना। असोसीएशन फ़ॉर डेमोक्रैटिक रिफॉर्मस् (ए.डी.आर) के द्वारा पहले चार चरण में चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों की लिस्ट में 30-35% उम्मीदवारों के ऊपर आपराधिक मामलें लम्बित हैं। तक़रीबन सभी दलों में अपराधी चुनाव लड़ रहे हैं, और जनता को इससे बहुत फ़र्क़ नहीं पड़ रहा। सिद्धार्थ मोहन का कहना है, "अगर किसी दल में एक या दो विधायक के ऊपर आपराधिक केस है, लेकिन अगर वो दल स्थिर सरकार दे रहा है तो मुझे इससे बहुत दिक़्क़त नहीं है। स्थिर सरकार की ज़रूरत है।" 

प्रजातंत्र में अगर जनता को समझौते करने पड़े, तो ये प्रजातंत्र की हार है। चुनाव के मुद्दे अलग-अलग दलों ने तय किए हैं, ना की बिहार की जनता ने। इसलिए चुनाव कोई भी जीते, शायद हार जनता की होगी।

Dissent ​amongst the intellectuals will be seen as the dark phase in history


The country is going through a crucial phase and something really important is happening in the country. The returning of awards by the intellectuals must not be seen as a trivial event. Similarly the strike by the FTII students must not be rejected as a regular strike by students.

​In the coming time, these two events will be remembered as ​critical events which created a divide in the society. People will look back in past and see these events as ​a ​struggle of ​a section against the mighty state.

At a time when the state has cleverly decided to ignore the dissent, and continue to rule with all its arrogance, the minority radical population of the country has came up with better ideas to counter attack. Sahitya Akademi ​A​ward is the highest literary award of the nation. As of now 41 recipients have returned it- latest being Urdu poet Munavvar Rana.
​ ​
This has invited international attention​.​ It sounds bizarre that the Prime Minister has time to tweet about demise of Asha Bhosle’s son, wish parliamentarians ​on their birthday​s ​- but has no time to speak on the rising tension over eating habits of people from various faith. Not share a thought over months long strike by students of a premier institute. And not talk about killing of liberals and intellectuals.

These are not trivial incidents. These are matters relating to law and order. These are the issues ​on which ​ a Prime Minister is expected to address first- before addressing ​to the ​international communities, and inviting MNCs to ‘Make in India’. For whom do we want to make in India?

The people of the country are tolerant. Maybe tolerant is a wrong word. We have become numb to the situation. Most of us- the sensitive liberal people- have started ignoring the situation. The society is constructed in a way that we have to ignore the most important questions. The priority is paying the EMIs and loans first. The priority is ensuring to stay away from any conflict. But we are in middle of the biggest conflict, and now we cannot ignore it.

The return of the award and strike by the FTII students is the best way the students and intellectuals can answer back. For those who do not have Sahitya Akademi award and are not studying at FTII, the only way is to speak up.

The silence of those who can speak up is a mark of numbing of society. It is a sign of a dead society. We are still breathing I guess.

It is time to speak up.

This article was first published on LokMarg on October 20, 2015
Permalink: 
http://lokmarg.com/dissent-%E2%80%8Bamongst-the-intellectuals-will-be-seen-as-the-dark-phase-in-history/ 

Dadri Lynching: ​Living in ​Fear

Lucknow: Uttar Pradesh Chief Minister Akhilesh Yadav addresses press
after meeting the family of Mohammed Akhlaq, who was lynched by a mob in
Bisahada village of Dadri; at his residence in Lucknow on Oct 4, 2015.
 (Photo: IANS)

​New Delhi: ​A man being lynched ​merely on the basis of rumours of him storing beef​ not only sounds absurd, but ​also ​horrific. ​Its a shame that this is the India​,​ we are living in- a nation build on great ideas ​and strong values ​of secularism has​ turned into a highly communal​ state​.

​A lot has been written and ​said about this issue. ​These cases are ​becoming so common that discussing it looks meaningless. We have been talking about this issue for ​the ​last ​four​ years at least. Killing of intellectuals, open threats to journalists who critically analyse BJP and Hindutva politics, lynching of a Muslim man on ​the basis ​of rumours of him storing beef- all this has ​emerged as a​ pattern.​ These unfortunate cases raise a question mark over secularism of the nation. ​This is not to deny the numerous riots that took place when Congress was in power. But nothing was done openly. The communal faces were actively working even then. But now everything ​seems to be in the open.

To everybody’s surprise the Prime Minister has chosen to keep silent on such issues. Modi has not spoken his mind on deaths and threats ​of the intellectuals, the FTII issue, the lynching of a muslim man. These issues have shaken the conscience of entire country. When Atal Bihari Bajpayee was the Prime Minister, he used to address such critical issues. ​Though he beloned to R​ashtriya ​S​wayam ​S​evak Sangh (RSS)​ and was a firm believer ​of Hindutva. But​, law and order was an important issue for him. Modi,​ it seems is extremely​ conscious about the economic growth ​and little about the internal issues.

​E​conomic growth is important for the country- very important- but how can the Prime Minister choose not to speak on such an issue and rather take out time to address rallies in villages of Bihar and talk about ‘Achche Din’?
The silence of the Prime Minister will lead to a bitter tomorrow. ​The increasing incidents related to religion is​ turning many young people communal. The fringe elements of the ‘other’ religion will capitalise on the opportunity​ and will give birth to anti-​​​social elements in the society.

This is not the right politics. But we choose to keep silent, because ​we do not want to come out of our comefort zone and want to turn a blind eye. We made Modi the man he is. We voted him ​in​to power. ​A section has become highly sensitive towards religion which is leading to such communal cases, which is posing a hinderance in the overall development of the country. Our sorrows will not end if an entire community is killed. Our life will not be better. Our battles will not end. But in name of pseudo-nationalism we are allowing such ideas to flourish.

This silence is numbing. We are no more sensitive. We are no more alive. Silence of the good has always resulted in the evil to rule. We are witnessing this in India.

This article was first published on LokMarg on October 6, 2015
Permalink: http://lokmarg.com/dadri-lynching-%E2%80%8Bliving-in-%E2%80%8Bfear/