कॉल साहब से पहली मुलाक़ात एक फैन की तरह हुई थी| फिर एक वर्कशॉप में एक्टिंग को लेकर उनके नज़रिए को समझने का मौका मिला| उसके बाद कई सारे तार जुड़ते गए और कुछ और वक्त साथ बिताया| ये ‘बातचीत’ सोनापानी में हुई थी, जिसे मैंने रिकॉर्ड कर लिया था (मानव को बता कर)| हम सोनापानी फिल्म फेस्टिवल में गए हुए थे जहाँ मानव की पहली फिल्म ‘हंसा’ दिखाई जाने वाली थी| एक शाम जब वक्त मिला तो मैं कई सारे सवाल के साथ मानव के साथ बैठा, और कुछ ऐसी बातें हुई जो बहुत दिलचस्प रहीं|
जब दिल्ली विश्वविद्यालय में नाटक करता था तो मानव के बहुत नाटक देखे थे जो दूसरे कॉलेज के स्टूडेंट किया करते थे| उसके बाद मानव के खुद के भी नाटक देखे| सिर्फ नाटक देखना ही काफी नहीं है| नाटककार को भी जानना बहुत ज़रुरी है| ये बातचीत मेरे लिए खास इसलिए है क्योंकि ये एक ‘इंटरव्यू’ नहीं है| बस बातचीत है जो हमने देर रात की| शायद घंटे भर बात किया था हमने- बात क्या किया था- मानव बोल रहे थे और मैं सुन रहा था| बिना किसी विशेष काट-छांट के वो बातें आपके सामने प्रस्तुत हैं|
निहाल : मानव सर, आप थियेटर करते हैं, और अब फिल्म बना रहे हैं| सबसे बड़ा अंतर क्या लगता है?
मानव : मेजर डिफरेंस हिस्ट्री का है| थियेटर हिस्ट्री नहीं बनाता है, वो मोमेंट्री आर्ट है| सिनेमा हिस्ट्री है| तुम कैपचर करते हो एक फ्रेम, वो हिस्ट्री हो जाता है| सिनेमा लाइफ के करीब है| जैसे लाइफ आपको रोज जीनी पड़ती है ना... एवरीडे... ऐसा नहीं है ना कि एक दिन अच्छा जी लिए तो हो गया... बस| लाइफ रोज जीनी पड़ती है... मोर्निंग टू नाईट- मोर्निंग टू नाईट... ईवनिंग| एक अच्छा दिन जीना दुखद हो जाता है हमारी लाइफ में| वो इसलिए दुखद हो जाता है क्योंकि आप उसको रीक्रिएट करना चाहते हो| जैसा थियेटर में आप करते हो, और उस ट्रैप में फँस जाते हो| फिल्म में है कि आप ट्रैप में फंसते हो, लेकिन वो कैपचर हो जाती है| वो हिस्ट्री है| उसके बाद वो आपकी समस्या हो जाती है कि आप उसको कितना कंधे पर लेकर चलते हो, कितना छोड़ देते हो| अगर छोड़ देते हो तो यू आर अ ग्रेट पर्सन| अगर कंधे पर लेकर चलते हो अपनी फिल्म, तो बहुत छोटे आदमी हो|
निहाल : कंधे पर लेकर चलते हो मतलब...
मानव : वो बेबी नहीं है ना| सबने मिलकर बनायी और वो खत्म हो गयी|
हर चीज़ जो आप करते हो उसका सिग्निफिकेंस होता है, वो आपको उस छोटे से समय के लिए खुशी देती है, और उतने में सब काम खत्म| उसके अलावा कोई काम नहीं है| ऐसी ही जिंदगी भी है| जैसे आपको एक इवनिंग बहुत अच्छी लगी... जैसे तुमने यहाँ तीन दिन बिताए, अब तुम फिर से आओगे सोनापानी और फिर से यही तीन दिन बिताना चाहोगे- फिर से बोनफायर लगे, फिर से हरप्रीत गाना गाये, फिर से वही मज़ा आये| वैसा कभी हो ही नहीं सकता| तुम्हें मज़ा कभी नहीं आएगा जब तुम क्रिएट करना चाहोगे| मज़ा हमेशा अनएक्सपेकटेड होता है| ‘आश्चर्य’ कब होता हो? जब तुम पहली बार प्ले में बैठते हो- आश्चर्य| दूसरी बार बैठते हो, नहीं होता आश्चर्य| तीसरी बार बैठते हो तो तुम पहला आश्चर्य नहीं जी सकते| तो हमारी हर चीज़ आदत के फॉरमुले में आ जाती है, जीने को मनडेन लाइफ में डाल देते हैं| अब जैसे कि इस बात को ध्यान से सोचो कि इंग्लैंड में मैच चल रहा है और हम यहाँ इंडिया में बैठे-बैठे लाइव देख रहे हैं- ये आश्चर्य है बहुत बड़ा, हमें आश्चर्य नहीं होता... वो आदत में आ गयी| हमारा जीवन जीना हमारे सारे आश्चर्यों का सामान्य होता जाना है| अब उसके बाद तुम आश्चर्य कहाँ ढूंढोगे? मेरे लिए इससे इंट्रेसटिंग बात कोई और नहीं है| जैसे मुझे एक्ज़क्टली पता है कि मुझे फिल्म मेकिंग नहीं पता है, और ये मेरे लिए अदभुत बात है| मेरे लिए इससे अच्छी कोई बात ही नहीं है कि मुझे पता ही नहीं है| जब अपनी फिल्म देखता हूँ तो आश्चर्य होता है| थियेटर में नहीं होता, क्योंकि थीयेटर मुझे अब थोड़ा पता है तो वो बोरिंग है| लाइफ में हर वो चीज़ जो पता चल जाती है, बोरिंग है|
निहाल : मैंने आपका सबसे पहले एक इंटरव्यू पढ़ा था “द हिंदू- मेट्रोप्लस” में| जिसने इंटरव्यू लिया उसने आपसे पूछा कि थियेटर मर रहा है तो आप क्या कहना चाहेंगे| आपने कहा कि मर रहा है तो मरने दो...
मानव : अफकोर्स... लेट इट डाई यार| तुरंत मारना चाहिए| अगर मर रहा है तो मैं मार दूँगा| अगर पता लगे कि मर रहा है तो आई विल किल इट| क्योंकि स्पेस क्रिएट होगी कैसे? जब तक स्पेस नहीं होगी, कोई नयी चीज़ उतरेगी कैसे? और सबसे महत्वपूर्ण बात है, उसकी ज़रूरत कितनी है? तुम्हें कितनी ज़रूरत है थियेटर की? हमें... किसी को ज़रूरत नहीं है| हम मजाक कर रहे हैं| हम एक-दूसरे को बेवकूफ बना रहे हैं| “हमें थियेटर की ज़रूरत है”, “थियेटर जिंदा रहना चाहिए”- बेकार! प्ले कौन जाकर देखता है? ये वो कहते हैं जो थियेटर कर रहे हैं| अगर आप जूते बना रहे होते तो आपको अच्छा लगता अगर सब जूते पहनते| अगर सब चप्पल पहनने लगते तो आप पागल हो जाते|
निहाल : मुझे जो सबसे अलग बात लगी वो ये कि आप एक अलग तरह का लिखते हैं| आपने लिट्रेचर पढ़ा है- बहित पढ़ा है| आपमें ये शौक आया कब? बचपन से, स्कूल में, कॉलेज में...
मानव : नहीं| मैं बिलकुल भी नहीं पढता था| पढ़ना चालू किया मैंने बम्बई में आ के...
निहाल : कब आ गए थे आप?
मानव : 98| पढ़ना तभी चाहिए जब आपको पढ़ने कि इच्छा हो| जैसे सिगरेट पीना होता है, पहले आप दिखाने के लिए पीते हो, दारु आप दिखाने के लिए पीते हो- कि आप बड़े हो गए हो| आपको कभी अच्छी नहीं लगती दारु| वैसे ही बस दिखाने के लिए सब पढ़ रहे होते हैं| “कौन है चेखव, कौन है ब्रेक्त| हम भी पढेंगे!”
बहुत लोग मुझे कहते हैं कि तुम आये तो थे बम्बई एक्टर बनने, पर...| सबसे अदभुत लोग वो हैं जो अपने आप को चेंज करते चले गए| जैसे लाइफ आई वैसे चेंज हो गए| क्योंकि वो बेस्ट लाइफ जीना चाहते हैं| वो लोग सबसे बड़े लोग होते हैं, मुझे ऐसा लगता है| जो अपने पचास- पचपन साल की उम्र में भी कुछ और करना चाहते हैं| और हमें एक लाइफ मिली है, और उस एक लाइफ में भी बस एक ही जिंदगी जीते रहे तो क्या घंटा जी रहे हैं| मुझे तो ये भी नहीं दिखता कि मैं फिल्में बना रहा हूँ| इसलिए मुझे पैसा सबसे बेवकूफी का काम लगता है| हमें बचपन से डराया गया है| अब कोई भी कहानी उठा लो... ग्रासहोपर की उठा लो- वो जो गर्मियों में बड़े मज़े से रहता है और ठण्ड में उसकी लग जाती है| फिर चींटी बोलती है कि तुमने ठण्ड के लिए कुछ बचाया नहीं तो तुम्हारी लग गयी| ये सब एल.आई.सी पोलिसी हैं| जिन्होंने ये सब कहानियाँ फैलाई हैं- हमको इतना डरा देते हैं ना कि फ्यूचर कि लग जाती है| आप सिर्फ डर कर जीते हो| मेरे हिसाब से मैं हूँ जितना, मुझे पता है कि मैं भूखा नहीं मर सकता| और क्या चाहिए मुझे?
मुझे लगता है कि सबसे रेडीक्युलस लाइफ कौन जी रहा है- अंबानी| वो इवेंचुअली पैसा मैनेज कर रहा है| और वो इतनी बड़ी रेस्पोंसिबिलिटी है क्योंकि आपके एक हज़ार बच्चे हैं| इससे बेकार लाइफ नहीं है कोई| हाँ, भले ही वो फ्लाईट में घूम रहा है, गरीबों को टुच्चे की नज़र से देख रहा है, पर उसकी पूरी लाइफ का आईडिया है कि उसके बाप ने इतना पैसा कमाया है और वो बस मैनेज कर रहा है| राजा और गुलाम का हिसाब है| गुलाम होना ही सबसे लिबरेटिंग काम है| गुलाम होना सबसे बड़ी आज़ादी है| राजा होना सबसे बेवकूफी का काम है, क्योंकि उसके ऊपर रेस्पोंसिबिलिटी है उन गुलामों की| वो अपनी जिंदगी गवाँ देगा उन गुलामों को ठीक करने में| गुलाम को पता है कि हमारी लाइफ तो ये हैंडल कर रहा है- हमें क्या करना है| तो गुलाम ज्यादा एनलाइटंड है और फ्रीडम में है, लेकिन हमको उल्टा लगता है| सोचो, उसके ऊपर रेस्पोंसिबिलिटी है इस बात की कि गुलामों को गुलामों की तरह बिहेव करवाना है| अगर ये लॉजिक समझ जाओगे ना तो चिल्ड आउट हो जाओगे| अब मुझे पैसा नहीं चाहिए, सिर्फ इस बात से ही मेरे लिए सारे दरवाज़े खुले हैं| तो मैं इतनी सारी चीज़ें करता हूँ जिनमे एक्चुअली बहुत पैसा लगता है| लेकिन मुझे नहीं चाहिए पैसा, मुझे ज़रूरत नहीं है, तो कोई लॉजिक मेरे लिए काम नहीं करता| अब कोई अमीर आदमी आता है तो वो मेरे लिए काम ही नहीं करता| वो मुझे बेवकूफ लगता है| मेरे को वो बिंदास आदमी सही लगता है जो कर जाता है कुछ| अब देखो मैं यहाँ सोनापानी में आकार रुकता हूँ, इतना ट्रैवेल करता हूँ, किसी के भी घर में आकार रुक जाता हूँ, तो ये काफी पैसा खर्च करने वाला काम है| न्यू योर्क हो आया तीन बार, कोरिया हो आया- एक पैसा नहीं था मेरे पास कभी| तो आप चीज़ों को दूसरे तरफ से देखो तो सब मिलकर बेवकूफ बना रहे हैं| अगर आप नहीं बनते तो लाइफ में ऐश करोगे|
निहाल : सबसे ज्यादा इन्फ्लुएंस आपको किसने किया? किसी इंसान ने, या किसी इन्सिडेंट ने?
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सोनापानी विलेज रिसोर्ट, रात के वक्त फोटो: पूजा शर्मा |
मानव: दो कौड़ी की आलस ने सबसे ज्यादा इन्फ्लुएंस किया| आलस सबसे बड़ी चीज़ है| हर ह्यूमन बींग बेसिकली आलसी है, और वो अपने आपको सबसे ज्यादा कम्फर्ट में रखना चाहता है| तो मैं राइटिंग करता हूँ क्योंकि मैं रायटर हूँ| असल में मैं सोता हूँ खूब| मुझे डेली जॉब नहीं करना है| तो हर कोई कुछ ऐसा ढूँढता है जो ज़रा सा आराम दे| हम सभी यही कर रहे होते हैं ना!
निहाल : निर्मल वर्मा ने आपको इन्फ्लुएंस नहीं किया?
मानव : अफकोर्स यार| आपकी राइटिंग तो इन्फ्लुएंस होती ही है| निर्मल वर्मा, विनोद कुमार शुक्ल, कोएत्ज़ी... कामू ने मुझे सबसे ज्यादा इम्प्रेस किया है| ‘आउटसाइडर’ मैंने कई एक बार पढ़ी है| लेकिन क्या है ना कि हर पॉइंट ऑफ टाइम पर आपके फेवरेट रायटर बदलते रहते हैं|
निहाल : अभी भी कुछ पढते हैं?
मानव : फिलहाल कोएत्ज़ी को पढ़ रहा हूँ| लेकिन एक रायटर है बोर्खेज़- जोर्ज लुई बोर्खेज़- जब वो बहुत फेमस हुआ तभी वो अंधा हो गया था| मैंने उसे बहुत नहीं पढ़ा है, लेकिन उसकी रैनडम चीज़ें पढ़ी है| उसकी एक नॉन-फिक्शन किताब है... मैं उसको कहीं से भी खोलता रहता हूँ| उसने बहुत अच्छी बात लिखी थी कि हम पढते कब हैं? हम पढते तब हैं जब हम दूसरी बार पढ़ रहे होते हैं| हम पहली बार में कभी पढ़ते नहीं हैं| हम पहली बार में जानना चाहते हैं कि स्टोरी क्या है, एंड क्या है? तो जब हम दूसरी बार पढ़ते हैं तो एकचुअली पढ़ते हैं| वो खुद एक बहुत बड़ा लाइब्रेरियन था, तो उसने पता नहीं क्या नहीं पढ़ा सिवाय तोल्स्तोय के| उसको बड़ी-बड़ी बुक्स से बड़ी परेशानी होती थी, तो वो छोटी बुक्स पढता था| तो उसे जब बहुत पढ़ने का मन करता था तो वो उन किताबों को पढता था जिन्हें वो पढ़ चुका होता था| और मैं इस बात से बहुत ज्यादा आईडेनटिफाई करता हूँ| कोई- कोई किताब तो मैं बिल्कुल भी नहीं छोड़ता| कुछ किताब तो मैंने छ: -छ: बार खरीदी हैं| लोग ले जाते हैं तो देते नहीं हैं (हँसते हुए)| तो क्या है कि मैं पढ़ी हुई किताबें ज्यादा अच्छे से पढ़ता हूँ, और जो नहीं पढ़ी हुई किताब है उसे मैं पहली बार में ऐसे ही पढ़ जाता हूँ|
निहाल: हमारी युनिवरसिटी में तो आपने बहुत लोगों को इन्फ्लुएंस किया है|
मानव : हाँ, एंड आई हेट दिस...
पूजा (हमारी सिनेमैटोग्राफर दोस्त, जो वहाँ मौजूद थी) : कौन सी युनिवरसिटी?
निहाल : दिल्ली युनिवरसिटी| मैं थियेटर करता था डी.यू में| तो पहले ही साल से खूब सुनता था “मानव कॉल के नाटक- मानव कॉल के नाटक”| पहले साल शक्कर के पांच दाने देखा, दूसरे साल पीले स्कूटर वाला आदमी|
पूजा : अच्छा| सो आपने (मानव से) शक्कर के पाँच दाने डी.यू में किया था?
निहाल : इन्होंने नहीं किया था| इनके नाटक अलग अलग कॉलेज अडाप्ट करते थे| कभी किरोड़ी मल, कभी रामजस|
मानव : क्या है कि मैंने अपने खुद के नाटक दूसरों को इतना करते देखा है कि मैं अब तो खुद देखता नहीं| जो लोग मेरा नाटक करते हैं हमेशा बुलाते हैं कि आ जाओ, हमने आपका नाटक किया है देख लो| मैं अपना नाटक खुद नहीं देखता| मैंने अपना नाटक कभी औडिएंस में बैठ कर नहीं देखा|
पूजा : हाँ| आई वेंट टू वन ऑफ यौर प्लेज़| मुझे लगा कि लास्ट में आयेंगे| इंटरैक्ट करेंगे, बट यू डिन्ट|
मानव : आई नेवर...| मुझे लगता है ना... आई फील सो नेकेड| क्योंकि मैंने लिखा है, और मैंने डिरेक्ट किया है| मेरी जो ग्रैंड रिहर्सल होती है ना- दैट इज़ माई प्ले, विच आई वाँट टू सी| तो मैं क्या करता हूँ ना कि ग्रैंड रिहर्सल में खड़ा होकर, किताब लेकर देखता हूँ| जैसे ही वो खत्म होती है ना, डेन इट इज़ देयर प्ले| उसपर मेरा कोई हक नहीं है| फिर मैं सुनता हूँ थोड़ा बहुत खड़ा होकर, अगर लगता है कि चीज़ें गलत हो रही हैं तो चेंज कर देता हूँ- थोड़ी-बहुत चीज़ें| लेकिन आज तक मैंने अपना नाटक नहीं देखा| अपना काम देखना- आई एम लीस्ट इंटरेसटेड| आई हेट इट| हेट इट भी नहीं, क्योंकि कभी- कभी जब शक्कर के पाँच दाने देखता हूँ तो लगता है कि अरे कितना अच्छा लिख दिया, किसने लिख दिया! क्योंकि आप इतना मूव ऑन कर जाते हो| अब ‘हंसा’ (मानव की पहली फिल्म) तो मैं देख ही नहीं सकता| चाहे कुछ हो जाए मैं नहीं देख सकता| और आई फाइंड पथेटिक प्रोब्लेम्स जो किसी को पता नहीं हैं| आई कैन रिप अपार्ट द फिल्म, इतने प्रॉब्लम दिखते हैं मुझे| ऐसे प्लेज़ भी हैं| वैसे प्ले तो मैंने बहुत पैशन से लिखे हैं, पागलपन के साथ लिखा है| अब ये फिल्म (“तथागत”- मानव की दूसरी फिल्म) भी प्ले की तरह पागलपन के साथ लिखा है| दैट्स वाई आई एम एकसाईटेड| बिल्कुल दो दिन में लिख दी पूरी फिल्म|
मुझे लगता है इसके बाद ना आप इम्पोर्टेंट हो, ना आपने कुछ किया है| अगर मैं ये नाटक नहीं करता, तो कोई और आकर करता ये नाटक| देयर इज़ ओल्वेज़ अ प्लेस- अ वैक्यूम| आप वहाँ आते हो और आपको लगता है कि वहाँ बहुत सारी स्पेस है और आप काम करने लगते हो| बट वो वैक्यूम है| आप नहीं होगे तो कोई और होगा| और जो रिएकशन है वो मैं दे रहा हूँ| मैं नहीं रिएक्ट करता तो कोई और करता| जैसे, जब हिंदूइज्म में प्रॉब्लम आई तो बुद्धिज्म आ गया| उसमे प्रॉब्लम दिखी तो दूसरा आ गया| तो वो रिएक्शन है| जैसे एक घटिया हिंदी फिल्म में, जब थ्रिलर बनाते हैं लोग तो लगातार थ्रिलर ही बनता है| फिर लोग बोर हो जाते हैं| कॉमेडी आती है| फिर बोर होते हैं तो कुछ और आता है| तो ह्युमन माइंड गेट्स बोर्ड विथ एवरी थिंग, एंड जब कुछ नया आता है तो खुश हो जाता है|
निहाल: जब दीपक (धमीजा) आपसे पहली बार मिला था तो उससे पहले मेरे साथ था| वो बता रहा था कि आपसे मिलने जा रहा है| वो ‘मम्ताज़भाई पतंगवाले’ देखने गया था, और फिर शायद आपलोग हैबिटैट सेंटर पर ही मिले थे| वापस जब आया तो बताया कि क्या-क्या बात हुई| तो उसने आपसे पुछा कि आपको भी पतंग उड़ाने का शौक था क्या बचपन में? आपने बताया कि आप पतंगबाजी खूब करते थे| तो आप दोनों की बात हुई थी ऑटो-बायोग्राफिकल राइटिंग या फिक्शन के ऊपर, और नाटक में आप अपनी जिंदगी के बारे में कितनी आसानी से कह देते हैं|
मानव: मुझे कुछ याद नहीं है कि मैंने क्या कहा था| लेकिन उसे डाँटा ही था (हँसते हुए)| क्योंकि वो रोया था प्ले में और इमोशनल था प्ले को लेकर| और मेरे लिए वो एक प्रोडकशन है| तो आप फँसे होते हो मैनेजमेंट में....
निहाल: और ऐसे में कोई इमोशनल बात कर देता है...
मानव: आई रेस्पेक्ट दैट| क्रिटीसिज़्म बेटर लागत है, क्योंकि आप नाटक बेहतर कर सकते हो उससे|
लेकिन क्या है ना कि कोई भी फिक्शन पहले ऑटो बायोग्राफिकल है| आप डायरी लिखते हो तो आप एक झूठे आदमी होते हो| आपसे बड़ा झूठ कोई नहीं लिख रहा होता है| सब झूठ| अब जैसे तू निहाल है, और कहानी लिखे कि राजू नाम का एक आदमी सोनापानी गया, तो तू ज़्यादा ऑनेस्टी के साथ लिखेगा| लेकिन अगर तू लिखेगा कि निहाल सोनापानी गया तो...
मानव: छुपाएगा भी नहीं| फिर तो तू हीरो है फिल्म का| हर आदमी हीरो बनना चाहता है| तो फिक्शन ज़्यादा मजेदार चीज़ है| आप पता नहीं क्या-क्या कह जाते हो, क्या- क्या कोम्प्लेक्स होते हैं, प्रॉब्लम आपका, लाइफ आपकी- इतनी लथर-पथर के लाइफ जी होती है कि... अब मेरी भी ऐज हो गयी है| पता नहीं क्या- क्या जीया है| पता नहीं किसका रिएक्शन कहाँ निकल कर आता है- आपको पता नहीं चलता| और थोड़ी देर बाद तो आप भूल ही जाते हो सब कुछ कि कहाँ से क्या आया| तो मम्ताज़ भाई मुझे बड़ा अच्छा लगता है|
सबसे इंट्रेस्टिंग बात किसी को कुछ नहीं पता| मैं सब यंगस्टर लोग से कहता हूँ कि किसी को कुछ नहीं पता...
निहाल: मतलब? किसे नहीं पता?
मानव: किसी को नहीं पता| सब बेवकूफ बना रहे हैं| सबको लगता है कि इसको खूब पता है, उसको पता है| असल में हर आदमी डरा हुआ है| तो जब किसी को कुछ नहीं पता तो अपनी बात भी कहो| लोड क्या लेना? किसी को कुछ नहीं पता, हर आदमी बस बेवकूफ बना रहा है| मुझे किसी इंसान का बॉडी ऑफ वर्क अच्छा लग सकता है| जैसे विनोद कुमार शुक्ल मुझे बहुत अच्छे लगते हैं| लेकिन जब भी मैं उनसे बात करता हूँ मैं रिग्रेट ही करता हूँ कि मैंने उनसे बात क्यों की! मुझे पता है कि उन्हें अच्छा लगेगा, कभी- कभी वो फोन भी कर लेते हैं| पर प्रॉब्लम क्या है कि... अब मैं बहुत दिनों से अपने घर से दूर रहा हूँ| मेरे मन में मेरी माँ की इमेज बहुत बड़ी है| तो जब मैं अपनी माँ से मिलता हूँ तो वो वो माँ नहीं है जिसकी इमेज है मेरे मन में| वो छोटी है उससे| तो मैं हमेशा डिस्सपोइंट हो जाता हूँ- माँ तो बहुत बड़ी थी यार... माँ तो कुछ और थी... माँ के लिए तो मैंने पोएट्री लिखी थी| माँ के लिए तो पता नहीं मैंने क्या किया था... लेकिन ये माँ तो मंडेन- दैनिक बातों में फँसी हुई है| लेकिन ये ट्रूथ है| ये वो नहीं है जो आप सोचते हो| तो आपका माइंड हर चीज़ को ग्लोरीफाई कर देता है- फिल्म बना देता है उसकी| असल में वो तो कुछ और ही है| तो जब असल लाइफ जीते हो तो वो तो कुछ और ही है|
(कुछ देर की चुप्पी)
(कुछ देर की चुप्पी)
निहाल: फिलोस्फर आदमी हो यार...
मानव: (हँसते हुए) अरे, फिलोस्फर-विलोस्फेर कुछ नहीं है| ऐसा है आपको जो समझ में आता है..| मुझे समझ आता है कि माइंड कांट वर्क विथ एनीथिंग| लेकिन जीने के लिए रीजंस तो इकहट्टे करने पड़ते हैं| तुम कैसे जियोगे आगे? मान लो कि तुम एक चीज़ करते हो, तो पूरी लाइफ रीज़न ही बटोरते हो उसके लिए| मैं भी वही कर रहा हूँ|
निहाल: जस्टिफाई करते हैं अपने आपको...
मानव: जस्टिफाई भी नहीं, बस रीज़न बटोरते हैं| जस्टिफाई क्यों? कोई पूछ थोड़े ही रहा है तुमसे कि तू कर क्या क्या रहा है साले...
निहाल: अपने आप से...
मानव: नहीं| हम बस रीज़न उठा रहे होते हैं कि व्हाट आई एम डूइंग इज़ द बेस्ट| और उसी तरह के लोगों के बीच उठते बैठते हैं, तो वो कहते हैं कि तू सही कर रहा है!
तो आप तो रीज़न वाले आदमी ही| रीज़न ज़्यादा इकहट्टे कर लिए, तो जीना ज़्यादा अच्छा लगता है- यार मैं सही हूँ, वो बेवकूफ है, वो गलत जी रहा है| तो वो रीज़न है, उसमे फिलोसोफी कुछ नहीं होती| क्योंकि जब आप डिप्रेस्ड, डाउन या आउट होते हो तो कुछ मदद नहीं करती- कोई किताब, कोई फिलोसोफी- कुछ भी नहीं| इफ यू आर आउट-डाउन-खतम, यू आर आउट-डाउन-खतम! यू हैव टू डील विथ इट| और जब डील करके बाहर निकलते हो तो आपको लगता है कि अगर मैंने ऐसा किया होता तो सही होता| लेकिन उस समय तो आप सब चीज सह रहे होते हो|
अब जैसे मैं एक्साईटेड हूँ, मैं दूसरी फिल्म् बना रहा हूँ| दूसरी फिल्म बनाने में “हंसा” के बराबर प्रॉब्लम नहीं होगी क्योंकि लोग काम करना चाहते हैं| अब तीसरी फिल्म बनाऊंगा तो और सहायता मिलेगी लोगों से| लोग कहेंगे कि अरे ये बना लेता है| अगर पहली फिल्म मैं बहुत खराब बनाता तो लोग मेरी ले लेते| वही बात है कि अगर आप एक काम ठीक करते हो तो आपको लिबर्टी मिल जाती है जो वैसे नहीं मिलती|
अब एक्टिंग जो है ना वो झूठ है- सबसे बड़ा झूठ है| नरेट करना झूठ है| डायरेक्ट करना झूठ है| मैं एक झूठी लाइफ क्रीएट करता हूँ, जो लाइफ है नहीं, तो उसके अंदर कितना ट्रूथ घोल दूँगा? फिर अपनी लाइफ देखते हैं, तो लगता है अबे हम कितना झूठा जी भी रहे हैं|
चिड़िया सबसे अदभुत है, वो एनलाईटएंड है| हम बेवकूफ हैं क्योंकि हम रीज़न ढूँढ़ते हैं|
अच्छा पता है मुझे सबसे चिढ़ किस बात से होती है? ये क्वेस्चन-ऐन्सर सेसन से| (हम फिल्म फेस्टिवल में थे, और एक फिल्म खत्म हुई, जिसके बाद क्वेस्चन-ऐन्सर सेसन शुरू हुआ था- आवाज़ बाहर तक आ रही थी)| फिल्म हो या थियेटर| आप बहुत बेवकूफ हैं अगर आपको कुछ पसंद आता है और आप उसके बाद सवाल पूछ लेते हैं| तुम अपनी पूरी की पूरी इमैजिनेशन की वाट लगा देते हो| अरे, जो चीज़ अच्छी लगी है टेक दैट फील एंड गो| अब मुझे ये सबसे खराब काम लगता है, लेकिन मैं ये कैसे बताऊँ कि ये खराब काम है (हँसता है)! अब “हंसा” के बाद मुझसे कोई सवाल पूछता है तो मैं झूठ ही बोल रहा होता हूँ| मैं क्या कर रहा था- मुझे खुद नहीं पता, मैं तो डरा हुआ था| मतलब आपको जानना क्या है? आपको कुछ नहीं जानना फिर भी आप सवाल पूछते हो|
पूजा: लेकिन कभी-कभी अच्छी कहानियाँ भी जानने को मिलती हैं ना|
मानव: हाँ, वो भी है| दैट्स अनदर थिंग| (शाम का नाश्ता आ जाता है- चिकन| मानव को चिकन पसंद है पूजा नॉन-वेज नहीं खाती) चिकन खा लो वरना बाद में जब स्वर्ग-और नर्क के लाइन में लगोगे तो इस बात पर आठ कोड़े ज़्यादा पड़ेंगे|
अरे, बचपन में मैं एक आश्रम जाता था –ब्रह्मकुमारी आश्रम| इट इज़ अ रिलिजन| तो वहाँ थ्योरी ये है कि हर आदमी आपका भाई है, और हर औरत आपकी बहन| अरे! इस बात से ही....| अच्छा, इसके बाद हर वेडनेसडे वो खूब नाश्ता देते थे- केले, फल- कुछ बकवास करते थे वो, उसके बाद| तो मैं उस दिन खूब जाता था वहाँ| और वहाँ पर कुछ फोटोग्राफ लगा होता था| पहले नर्क के फोटो, कि अगर आप शादी कर लोगे तो नर्क जाओगे, कड़ाही में उबलोगे| लेकिन अगर आप नहीं करोगे तो आप स्वर्ग जाओगे- वहाँ लड़कियां होंगी, हिरण होंगे, शेर के साथ आप डांस करोगे| तो मैं कभी ये लॅाजिक लगा ही नहीं पाया कि अगर स्वर्ग में लड़कियां मिलनी ही है तो....|
उस समय मैं नाश्ते के चक्कर में गया था, लेकिन अब सोचता हूँ कि कितना गया हूँ मैं ब्रह्मकुमारी आश्रम|
निहाल: होशंगाबाद में?
मानव: हाँ, मेरे घर से थोड़ा सा दूर|
निहाल: आपका जन्म होशंगाबाद हुआ था?
मानव: ना| कश्मीर में|
निहाल: आप रहे वहाँ पर?
मानव: हाँ, बचपन वहीँ बीता- मतलब बहुत छोटा बचपन| बाकी होशंगाबाद|
निहाल: और होशंगाबाद के बाद?
मानव: उसके बाद भोपाल| फिर थियेटर चालू हो गया| थियेटर, स्विमिंग|
निहाल: स्विमिंग भी भोपाल में शुरू किया?
मानव: स्विमिंग के कारण ही तो भोपाल आया था|
निहाल: आये थे स्विमिंग के लिए, किया थियेटर?
मानव: हाँ, स्विमिंग करते हुए मुझे समझ में आया मैं क्या कर रहा हूँ| (हँसते हुए) अपनी लाइफ पानी में डूबा रहा हूँ|
निहाल: और दूबे जी के साथ भोपाल में काम किया?
मानव: उनके साथ तो बम्बई में आ कर- 98 में|
निहाल: आपने दुबे जी के अलावा किसके साथ काम किया?
मानव: सुनील शानबाग, विनोद रंगनाथ, पता नहीं किसके साथ| बम्बई में जो थे सबके साथ कर लिया... 2003 तक... मकरंद देशपांडे|
निहाल: और दूबे जी को आपने छोड़ दिया था कह कर कि वो अच्छा नहीं लिखते?
मानव: हाँ, खराब लिखते थे|
निहाल: वो अपना नाटक खुद लिखते थे?
मानव: हाँ, बाद में लिखने लगे थे| अच्छा नहीं लिख पाते थे| वो असल में रायटर थे नहीं|
निहाल: लेकिन आपको काफी पसंद थे ना| आप तो हमेशा ज़िक्र करते हैं उनका|
मानव: अरे, बहुत अच्छे आदमी थे, बहुत अच्छे| मतलब डाइरेक्टर तो बहुत ही अच्छे थे| लेकिन वही बात है, वो डाइरेक्टर थे, राइटर नहीं थे|
निहाल: आप जब एक्टिंग के बारे में समझाते है, जैसा हमें भी काफी कुछ समझाया था सच और झूठ के बारे में एक्टिंग में, तो खुद से एवोल्व किया, या किसी का बहुत असर रहा?
मानव: देख, आप जब एक्टिंग करते हो ना तो धीरे-धीरे चीज़ें समझ आने लगती हैं| प्रोफेशन है ना| जैसे डॉक्टर को पता लग जाता है कुछ साल बाद कि ऐसे करना है वैसे करना है| पहला ऑपरेशन वो खराब ही करेगा| दूसरे-तीसरे से ठीक करने लगेगा| बस ऐसा ही यार| अब लोग बोलते हैं कि तुम इतना लिख लेते हो, दूसरी फिल्म तुरंत लिख दी| अब प्रॉब्लम ये है कि मैं कुछ और करता नहीं हूँ भाई| मैं कोई जॉब थोड़े ही कर रहा हूँ और बीच में आकर लिख देता हूँ| मैं और कुछ भी नहीं करता| मेरे पास इतना टाइम है, पढ़ता रहता हूँ, लिख लेता हूँ|
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सोनापानी फिल्म फेस्टिवल में आये सभी साथी| फिल्म फेस्टिवल 21 सितम्बर से 23 सितम्बर, 2012 को हिमालयन विलेज, सोनापानी में आयोजित किया गया था| |
badiya Nihaal Babu. :)
ReplyDeletekya aadmi hai yaar. Saccha aadmi, paagal aadmi.
ReplyDeleteYehi hote hain asli teacher.
Thanks Nihal bhai, mazza aaya padh kar.
Dada... Is always like this... !!
ReplyDeleteManav Kaul is Manav kaul !!
जब तक स्पेस नहीं होगी, कोई नयी चीज़ उतरेगी कैसे?
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