Friday, February 15, 2013

कठपुतली कॉलोनी: एक लंबी कहानी का अंतिम पैराग्राफ

कुछ दिनों पहले कॉलेज में पढ़ाई के दौरान किसी कारण से कठपुतली कॉलोनी का नाम सुना| नाम बड़ा रोचक लगा| इसके बारे में पता करने की कोशिश की| एक फ़िल्मकार कि फिल्म का ट्रेलर भी देखा जो इसी कॉलोनी के ऊपर बन रही है|

अपने आपको कलाकार समझता हूँ इसलिए जितना हो सका कठपुतली कॉलोनी के बारे में पता करने की कोशिश करता ही रहा| कठपुतली कॉलोनी दिल्ली के सी.पी (कनॉट प्लेस) से बस छः किलोमीटर की दूरी पर है| करीबन आधे सदी पहले घुमंतू लोग इस इलाके में आकार बस गए थे| ये जादूगर और कठपुतली नचाने वाले खानदानी कलाकार थे जो सदियों से अपनी धरोहर को सम्हाले देश के कोने-कोने जाते| इस जगह को इन्होने घर मान लिया| यहाँ काम भी मिलने लगा| ये यहाँ के हो गए| 

जैसे-जैसे बाज़ार बदलता गया, इनकी आर्थिक हालत खराब होती गयी| सरकार ने इनके कला के विकास और बढ़ावे के लिए कोई कदम नहीं उठाये| जिन कलाकारों को बेशुमार इज्जत मिलनी चाहिए थी उनके रहने और खाने के भी दिक्कत होने लगे| 

कठपुतली कॉलोनी का प्रवेश
फोटो: निहाल 
जब मैं पहली बार कठपुतली कॉलोनी गया, जो कि शादीपुर मेट्रो से पाँच-दस मिनट के दूरी पर है, तो मुझे आश्चर्य हुआ कि इतनी गन्दगी में भी कला कैसे जिंदा है? इतना ज़रूर समझ गया कि ज़्यादा दिन जिंदा नहीं रहने वाली| इन्टरनेट पर रिसर्च के दौरान पता चला कि पूरे के पूरे कॉलोनी को रहेजा डेवेलपर्स को बेचा जा चुका है सरकार द्वारा, और कलाकारों को आनंद पर्बत इलाके में बसाने की योजना है|

कठपुतली कॉलोनी में जाते ही एक बहुत बड़ा कूड़े का ढेर है जहाँ सूअरों का झुण्ड कचरे के ढेर में से खाना खोजता रहता है| छोटे बच्चे वहीँ खेल रहे होते हैं| पूरे गली में खुला नाली दौड़ लगा रहा होता है| मध्य वर्गीय पालन पोषण के कारण ये दृश्य बहुत घिनौनें लगे| दुर्गन्ध थी वहाँ| उलटी आने ही वाली थी| नाक पर हाथ रख कर किसी तरह अंदर गया| पाँच मिनट के बाद नाक को वो बदबू सामान्य लगने लगा| उलटी नहीं हुई|

सबसे पहले एक दवाई के दूकान पर जाकर बातचीत शुरू की| दवाई दूकान वाले भाई ने जानकारी दी कि कॉलोनी में लोगों कि तबियत बहुत खराब रहती है, लेकिन पैसा ना होने के कारण बहुत लोग इलाज नहीं करवाते| ये भाई भी दुखी थे और दूकान बंद कर के कुछ और काम करने कि सोच रहे थे| 

उनके दूकान पर एक युवक आया, जिसको फीवर था| वो कोई इंजेक्शन लेने आया था| उनसे भी बात शुरू हुई| उन्होंने बताया कि वो खानदानी कठपुतली कलाकार है लेकिन अब शादियों में ढोल बजाता है| कठपुतली कॉलोनी के अधिकतर नौजवान अब शादियों में ढोल बजाते हैं या इसी तरह का कुछ और काम करते हैं|

इस आदमी ने मुझे बतलाया कि अगर ज़्यादा जानकारी चाहिए तो मुझे दिलीप प्रधान जी के पास जाना होगा, जो कॉलोनी के बुज़ुर्ग हैं| दिलीप जी घर का रस्ता बहुत आसान था| गली में जिससे भी पूछा उसने पहुँचा दिया उनके दरवाजे तक| मुझे ऐसा लगा कि वो शायद गाँव के मुखिया होंगे जिनके पास काफी जानकारी होगी| 

दिलीप जी का घर सिर्फ एक कमरे का था| शायद पूरे कॉलोनी में हर किसी का घर सिर्फ एक कमरे का है| झुग्गी-झोपडियों में दो या तीन कमरों कि जगह नहीं होती| 

दिलीप जी सो रहे थे| उनके घर के किसी सदस्य को जब मैंने उनके बारे में पुछा तो उन्होंने मुझे बुला लिया| उनकी तबियत खराब थी| फिर भी एक पत्रकार समझ कर उन्होंने मुझसे बात करना शुरू कर दिया| 

दिलीप जी से हुई बातचीत बिना किसी महत्वपूर्ण काट-छांट के प्रस्तुत है:

दिलीप प्रधान
फोटो: निहाल

निहाल: दिलीप जी, आप सब यहाँ कठपुतली कॉलोनी में कब आए? 

दिलीप प्रधान: मैं यहाँ करीब पन्द्रह-सोलह साल का था तब आया था| 

निहाल: किधर से आए थे आप लोग? 

दिलीप प्रधान: राजस्थान से| दिल्ली आने के बाद हमारे प्रोग्राम ठीक चलने लगे| तो पैंतालीस-छियालीस साल से हमलोग यहीं पर हैं| 

निहाल: पैंतालीस-छियालीस साल से... 

दिलीप प्रधान: तब से ही ये कठपुतली कॉलोनी है| ये कॉलोनी हम लोगों के नाम पर ही है| यहाँ सिर्फ जंगल ही जंगल था तब| ये जो राजेंद्र प्लेस बन है, ये तब पहाड़ी इलाका था| और ये जो रेलवे वाला पुल है ना... मेट्रो का नहीं.. रेलवे का... तब ये पुल भी नहीं था| तब हमलोग आए थे यहाँ| तब यहाँ बस एक फाटक होती थी| 

निहाल: यहाँ आने के बाद आपलोगों ने दिल्ली भर को अपनी कठपुतली कला दिखाई| दिल्ली से बाहर भी जाना हुआ? 

दिलीप प्रधान: जी हम तो विदेशों में भी गए हैं| मैं एक बार फ्रांस होकर आया था| 

निहाल: आपकी कॉलोनी में इतने कलाकार हैं, सरकार ने बिल्कुल भी कद्र नहीं की? 

दिलीप प्रधान: सरकार किसके लिए कुछ करती है? सरकार तो बस अपना पेट भरती है| बस बड़े-बड़े घोटाले करती है| किसी की भी सरकार हो कलाकारों को उनका हक नहीं देती| जिनको हम वोट देते हैं उनका काम है कि जो लोग झुग्गियों में रह रहे हैं इतने सालों से उनके बारे में कुछ सोचे| 

हमारी शुरू से डिमांड थी कि हमें प्लाट काट कर दिए जाएँ, छत हमारी अपनी हो| तो ये लोग, डी.डी.ए वाले,  कहने लगे कि कठपुतली कॉलोनी में जगह काट कर देंगे तो जगह कम है| इसलिए प्लाट काट कर नहीं दे सकते, आप दूसरी जगह चले जाओ| वहाँ हम प्लाट काट कर दे देंगे| हमने कहा कि इस जगह को छोड़ कर हम दूसरी जगह नहीं जाना चाहते| उन्होंने कहा कि थोड़े बड़े प्लाट दे देंगे| हमने कहा कि बड़े प्लाट के लिए तो हम राजस्थान चले जायेंगे| वहाँ तो बड़ी-बड़ी जगह है रहने के लिए| लेकिन वहाँ पर हमारा गुज़ारा नहीं चलेगा| वहाँ पर हमें काम नहीं मिलेगा| हमें प्रोग्राम नहीं मिलेगा| प्रोग्राम मिलेगा तभी तो हमारा गुज़ारा चलेगा| कठपुतली कॉलोनी के अंदर हमें काम मिल जाता है तो हम इसी जगह रहेंगे| 

अभी पता नहीं सरकार कि क्या प्लानिंग चल रही है| कहते हैं कि हमें बारह-बारह मंज़िल कि फ्लैट बना कर देंगे| हमारे लिए उसके अनदर रहना बहुत ही मुश्किल होगा, क्योंकि हमारी जो कला है ना वो उसके अंदर खत्म हो जाएगी... क्योंकि हमारी कठपुतली के स्टेज का सामान है... वहाँ भी तो छोटे-छोटे ही कमरे देगी... अब उसके अंदर सामान रखेंगे, हम भी रहेंगे, वहाँ प्रैक्टिस भी करेंगे, कठपुतली बनायेंगे... क्या-क्या उस छोटी सी जगह में करेंगे| तो हमें तो अपनी कला के खत्म होने का भी बहुत डर है| 

अब ये कहते हैं कि जगह कम है इसलिए चले जाओ| लेकिन हम सुनते हैं कि यहाँ पर बिल्डर मॉल बनायेंगे, और रहने के लिए घर भी बनेंगे जिसको वो बेचेंगे| अब जगह ही कम है तो बेचने के लिए कहाँ से आ गया इतना कुछ? हमारे लिए क्या कर रही है? हमारी ही ज़मीन बेच रही है| 

निहाल: मैंने जितना कुछ पढ़ा इस कॉलोनी के ऊपर तो मैंने जाना कि इसके ऊपर किसी दूसरे देश के इंसान ने एक फिल्म भी बनायी है, और इस कॉलोनी को सरकार ने रहेजा डेवेलपर्स को बेचा है, जैसा कि आपने ही कहा मॉल बनाने के लिए| और आपलोगों को आनंद पर्बत भेजा जा रहा है, जहाँ शायद बारह-तेरह माले कि बिल्डिंग बनायीं जा चुकी है....

दिलीप प्रधान: हमें तो डी.डी.ए ने कहा है आनंद पर्बत के लिए, और हमारे एम.पी अजय माकन ने भी कहा है| हमें अब एम.एल.ए भी कह रहे हैं कि तीन-चार साल लगेंगे पूरी तरह से सब कुछ बनने में| इसलिए टेमपोररी तौर पर आनंद पर्बत शिफ्ट किया जा रहा है| वहाँ पर आठ बाई दस का ही कमरा है... इससे भी छोटा (जिस कमरे में हम बैठे थे)| उसके अंदर तो रहना दुश्वार हो जाएगा| इनको कुछ तो सोचना चाहिए| आप यकीन नहीं करेंगे इन नेताओं की टोइलेट हमारे घरों से बड़ी होगी जो ये हमें रहने को दे रहे हैं| ये आप नाप कर देख लें| पता नहीं क्या सोच कर दे रहे हैं? पता नहीं ये इश्वर को या अल्लाह को मानते भी हैं या नहीं| कलाकारों को ये सूअर समझते हैं कि सामने कुछ भी डाल दिया| ऐसा लगता है जैसे पक्षी को पिंजरे में बंद कर देते हैं वैसा कुछ बना कर हमें दे रहे हैं| पता नहीं ये सरकार हमें क्या समझती है.... कि हम बाहर से कोई शरणार्थी बन कर आए हैं| अरे हम हिंदुस्तान के नागरिक हैं| इतने साल से इसी जगह पर रहे हैं| 

एक कलाकार की इज्जत करो| हम सभी दुनिया का मन बहलाते हैं| इतना कुछ करते हैं| जब एक कलाकार अपने रूप में आता है तो ये प्रधानमंत्री- राष्ट्रपति सब स्टेज के नीचे बैठ कर हमारे शो देखते हैं| जबकि हमेशा ये नेता स्टेज पर होते हैं और पब्लिक नीचे होती है| लेकिन कलाकार से नीचे ये लोग होते हैं| तो हमें इज्जत तो देनी चाहिए ना| ज़्यादा तो नहीं मांग रहें हम, बस खुश रखना चाहिए हमें|


निहाल: दिलीप सर, यहाँ आपसे छोटे बहुत लोग होंगे| आपके बच्चे भी होंगे| तो क्या अब भी ये सभी लोग कठपुतली की कला करते हैं? 

दिलीप प्रधान: जब शुरू-शुरू में हम यहाँ आए थे तो हम भूखे रह गए थे लेकिन हमने अपनी कला जिंदा रखी| अब बहुत दिन तक हमें अगर शो नहीं मिला तो हम अपनी कला को खत्म तो नहीं कर देंगे| इसी से तो हमारी पहचान है| हमें कलाकार कहा जाता है| उसे हम कैसे छोड़ दें? हमने किसी स्कूल में पढ़ाई नहीं की| हमारी पढ़ाई हमारी कला ही है| 

निहाल: तो जो नए लोग हैं उनमे आप वही जज्बा देखते हैं कला को जिंदा रखने के लिए? 

दिलीप प्रधान: कला को जिंदा रखने के लिए तो है लेकिन सरकार भी तो हमारी हेल्प करे| कम से कम एक थियेटर बना कर दे जिसमे बच्चों की प्रैक्टिस चलती रहे| अब आनंद पर्बत पर जो जगह बना कर दे दी वहाँ पर भगवान ना करे, लेकिन किसी के घर अगर कोई मर भी जाता है तो दस-बीस लोग खड़े भी नहीं हो सकते| तो कलाकारी दिखाने के लिए कहाँ जगह मिलेगी वहाँ| 

निहाल: यहाँ हमेशा पत्रकार आते रहते हैं आपलोगों से बात करने? 

दिलीप प्रधान: हाँ| 

निहाल: आपको क्या लगता है इससे कुछ फर्क पड़ेगा? 

दिलीप प्रधान: भाईसाहब, आप बुरा मत मानना| लेकिन कुछ तो ऐसे पत्रकार भी आ रहे हैं जो बाते हैं बात करते हैं और पता नहीं बाहर जाकर क्या करते हैं| एक आया था तहलका वाला| मैंने पुछा किस अखबार में लिखते हो तो बोला कि अखबार में नहीं लिखता| मेरे और कुछ लोगों के इंटरव्यू भी लेकर गया| बाद में अमेरिका से एक प्रोफेसर आए थे| उनको मैंने बताया कि तहलका वाला आया था| वो अपना नम्बर भी देकर गया था| प्रोफेसर ने फोन करके बात किया| जब बताया कि हमारे यहाँ से फोन है तो उसने फोन काट दी और दुबारा उठाया भी नहीं| उसके वेबसाइट पर भी कुछ नहीं था प्रोफेसर ने बताया| आप बुरा मत मानना| 

निहाल: अरे बुरा क्यों मानूँगा| मैं भी कलाकार हूँ| एक्टिंग करता हूँ| 

दिलीप प्रधान: अच्छा| पता है क्या आप पढ़े लिखे हो| हम लोगों से अच्छा काम कर भी लोगे... 

निहाल: अरे कभी नहीं... आपलोग तो इतने साल से कर रहे हो.. 

दिलीप प्रधान: नहीं| आप हमसे अच्छा कर भी लोगे| लेकिन आप खानदानी कलाकार तो नहीं हैं ना| आपने सीखा होगा दूसरे लोगों को देख कर| आप किसको देख कर कला कर रहे हैं? 

निहाल: दूसरे लोगों को देख कर, साथ काम कर के... 

दिलीप प्रधान: कलाकारों को देख कर ही ना? अगर ट्रेडीशनल कलाकार नहीं होते तो आज के दिन दुनिया में फिल्में नहीं बनती| आज जो बड़े-बड़े सर्कस हैं, अगर ये कलंदर ना होते, ये भालू-बन्दर वाले- तो ये सर्कस कहाँ से बनाते? अब बड़े-बड़े फिल्म वाले कहते हैं कि वो भांड-बहरूपिये वाला काम करते हैं| हम ही तो भांड-बहरूपिये हैं| और कौन है? हमें देख कर वो कर रहे हैं, लेकिन हमसे अच्छा कर रहे हैं| जिस कला को हमने जिंदा रखा है सदियों से, उन कलाकारों कि सरकार वैल्यू नहीं कर रही| 

हमलोग पीछे रह गए, इसलिए कि हमलोग पढ़ाई-लिखाई की तरफ ध्यान नहीं दे पाए| 

निहाल: अब जो छोटे बच्चे है उन्हें पढ़ा रहे हैं? 

दिलीप प्रधान: हाँ हाँ| अब पढ़ाना शुरू कर दिया है| 

निहाल: आपको क्या लगता है, ये जो बच्चे हैं जब बड़े हो जायेंगे तो कठपुतली कला करेंगे? 

कॉलोनी का एक दृश्य
फोटो: निहाल
दिलीप प्रधान: जबतक हमलोग जिंदा हैं तब तक तो खत्म नहीं होने देंगे| आगे बच्चों के बारे में क्या कह सकते हैं| लेकिन अब भी बहुत से छोटे-छोटे बच्चे हैं जो कठपुतलियाँ नचा रहे हैं| 

निहाल: और यहाँ पर जादूगर भी हैं? 

दिलीप प्रधान: हाँ| 

निहाल: वो अलग होते हैं क्या? 

दिलीप प्रधान: ऐसा है कि जो हमारी समिति हैं, “भूले-बिसरे कलाकार सहकारी समिति”, ये बारह्पाल की समिति है| बारहपाल मतलब इसमें बारह कौम है| जिसमे हिंदू भी हैं, मुसलमान भी हैं| अब जैसे कठपुतली हैं, ये बजानिया नट हैं| एक नट होते हैं| एक एक्रोबैट वाले होते हैं, जैसे भोपा हैं| जग्लर हैं| ये हिंदू होते हैं| लांगा हैं, कलंदर हैं भालू-बन्दर वाले| एक मैजिक शो वाले हैं| ये मुसलमान हैं| तो ये ट्रेडिशनल कलाकारों की एक समिति बनी है| पहले हम अलग-अलग शहरों में घूमते थे| जब यहाँ पर रहने लगे तो हम कलाकारों के एक दोस्त हैं, राजीव सेठी, उन्होंने कहा कि आप सभी ट्रेडिशनल कलाकार हो, खानदानी कलाकार हो, तो आप सभी एकता बनाओ| उस एकता के लिए एक समिति बनाओ| वो हमारी समिति के सलाहकार भी हैं| उन्होंने कई जगह अच्छे-अच्छे स्टेजों पर हमारे प्रोग्राम भी करवाये| विदेशों से भी लोग आए देखने के लिए| उनको हमारे शो पसंद आए तो उन्होंने अपने देश में बुलाना शुरू कर दिया| इसलिए यहाँ से लोग विदेशों में भी जाते हैं| 

निहाल: चलिए, उम्मीद करते हैं कि इसी तरह से सब कुछ और बेहतर होता रहे... 

दिलीप प्रधान: उम्मीद का तो क्या है... जहाँ इन लोगों ने फ़ाइनल कर दिया कि बारह मंज़िल में रखेंगे... जहाँ बेदर्द हाकिम हो वहाँ फ़रियाद क्या करना... 

हमने भी मान लिया कि जो ये दे देंगे उसी में गुज़ारा कर लेंगे| लेकिन उसमे भी हमने कुछ शर्त रखी कि आप जो सर्वे कर रहे हो उसकी लिस्ट हमें दे दो ताकि उसके अंदर हम देखें कि हममे से कोई छूट तो नहीं रहा है| उन्होंने नहीं दिया| हमने आर.टी.आई लगाया| आप जैसे ही किसी पढ़े-लिखे समझदार इंसान ने हमें बताया था| उसका जवाब नहीं दिया| दुबारा लगाया, तीन बार लगाया... एक बार भी जवाब नहीं दिया| लेकिन अब उन्होंने एक लिस्ट दिया है| पर उनके पास दो लिस्ट हैं| एक लिस्ट में उन्होंने फ़ाइनल किया है कि इन लोगों को मकान मिलेगा| वो लिस्ट हमें नहीं दे रहे अब| तो हमने अजय माकन जी से भी कहा था| वो आदमी तो बहुत अच्छे हैं पर पता नहीं इसमें उनकी क्या सोच है| वो कह तो रहे हैं कि यहाँ रहने वाले सबको मकान दिलवायेंगे| इस पर मैंने कहा कि आपकी बात तो बहुत अच्छी लगी| पर अगर आप वो लिस्ट दिलवा दे तो बड़ी मेहरबानी होगी क्योंकि डी.डी.ए. वाले तो दे नहीं रहे| इसपर वो भी कह रहें हैं कि लिस्ट कि क्या ज़रूरत जब मैं बैठा हूँ यहाँ पे| इसलिए हमें थोड़ा शक है कि शायद आधे लोगों को ज़मीन नहीं मिलेगी| 

अब टी.वी पर कभी-कभी सुनते हैं कि बम्बई में एक सोसाइटी बनी थी आदर्श... उसमे सभी नेता दूसरों के मकान खा गए| अब ऐसा भी सुनने में आया है कि हमारे जो मिलिट्री के जवान जो शहीद हो गए बोर्डर पर उनकी विधवाओं को जो पैसे मिलने थे वो तक नहीं दिए| ये सोच कर हम परेशान रहते हैं कि अगर देश पर जान न्योछावर करने वालों के साथ धोखा हो सकता है तो हम तो बस कलाकार हैं| लेकिन अब किस से कहें, किस से फ़रियाद करें| एक बार हम राजीव गाँधी जी से मिले थे| उनको हमने अपना प्रोग्राम भी दिखाया था| बड़े खुश हुए थे| तो हमने एक गाना भी सुनाया था उनको कि, 

धरती पर अम्बर का साया 

पंछी तक का अपना घर है 

जग का दिल बहलाने वाला 

कलाकार खुद बेघर है... 

तो राजीव गाँधी जी ने कहा कि अगली बार तुम्हें ये गाना नहीं गाना पड़ेगा| आज अगर राजीव गाँधी होते तो.... 


(दिलीप जी का गला रूंध गया था| मैं उनके आँख में आँसू देख सकता था| मैंने आगे रिकॉर्ड करना उचित नहीं समझा|)
कलाकारों की कॉलोनी
फोटो: निहाल


1 comment:

  1. very well writeen .
    prntu sawaal jwaab ko dekhkr mn me kafi prasn uth rhe hai??


    kyaa aapne unse nhi puchha ki is barbadi ki suruat kisne ki??
    kya aapne unse puccha ki imarato ki ijajat sarkar ko kisne di?
    PPP project ke tht unse aapne puccha ki kya project ke innogration se phle basti ke sbhi logo se puchha gya ki wo iske liye taiyar hai??
    aapne unse puchha ki survey me janta ne bhag liya??
    aapne unse puchha ki transit camp ko majuri kaise mil gyi??
    khud aag lgakr tamasha krna netao ka kaam hai dost.

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