Monday, November 2, 2015

बिहार चुनाव से ग़ायब मुद्दे




बिहार चुनाव अपने अंतिम चरण में पहुँच चुका है। इस चुनाव को कई विश्लेषक प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष की राजनीतिक समझ और सूझबूझ की अग्नि परीक्षा मान रहे हैं। ये नीतीश कुमार और लालू यादव के पच्चीस साल के राज का भी इम्तिहान है। लेकिन दरअसल ये बिहार की जनता की परीक्षा थी। 

हर चुनाव अपने साथ एक बदलाव का वादा लेकर आता है। पिछले छः दशक में अनगिनत चुनाव अपने साथ भारत के भविष्य को बदलने का वादा लेकर आए। लेकिन देश का वर्तमान इस बात की गवाही देता है कि चुनावी बयानबाज़ी सच्चाई नहीं होते। बिहार चुनाव में भी अनगिनत वादे किए जा चुके हैं। अब देखना है कि राजनेता अपने वादों को लेकर कितने ईमानदार हैं। 

बिहार में मुद्दों की कमी नहीं है। लेकिन कुछ ज़रूरी मुद्दे इस चुनाव से ग़ायब दिखे। बिहार का युवा वर्ग अब भी बेहतर पढ़ाई के लिए और बेहतर रोज़गार के अवसर के लिए दूसरे राज्यों का मुँह देखता है। पिछले दस सालों में पलायन पर बात हुयी, लेकिन ये चुनावी मुद्दा नहीं बन पाया। 

ऋषिकेश रोशन सिविल परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं। इन्होंने पटना विश्वविद्यालय से स्नातक किया, और सिविल परीक्षा की तैयारी करने के लिए दिल्ली आए। बिहार से पलायन और चुनावी वादों के ऊपर ऋषिकेश कहते हैं, "मेरे स्कूल के दोस्तों में से 90 प्रतिशत लोग अब बिहार में नहीं हैं। सभी ने अपनी पढ़ाई दिल्ली, पुणे या बंगलोरे से की है। बिहार में वो अवसर नहीं हैं जो किसी को वापस बुला सकें। भाजपा अवसर बनाने की बात करती है, लेकिन देखना होगा कि कितने अवसर बन पाते हैं। राजद और जदयू वापस से जंगल राज की तरफ़ इशारा करते हैं।" 

भाजपा के कई नेताओं ने, और स्वयं प्रधानमंत्री ने बिहार में उद्योग लाने की बात की है। लेकिन नीतीश कुमार की सरकार (जिसने आठ साल तक भाजपा भी सहयोगी थी) ने कई उद्योग-कार्यक्रमों का शुभारम्भ किया है। जब तक जदयू-भाजपा अलग नहीं हुये थे पूरा देश बिहार की बदलती परिभाषा देख रहा था। युवा उद्योगकर्मी सिद्धार्थ मोहन कहते हैं, "भाजपा ने अलग-अलग राज्यों में भ्रम फैलाया है कि वो बदलाव लाना चाहते हैं। अभी जिस भी राज्य में भाजपा सरकार बनी है वहाँ कोई मूलभूत बदलाव नहीं दिख रहे। बिहार चुनाव से भी असली मुद्दे ग़ायब किए जा चुके हैं। अप्रवासी बिहारियों को वापस बुलाने की बात कोई नहीं कर रहा। इससे जुड़े ज़रूरी अवसर कोई नहीं बना रहा। भाजपा धर्म की राजनीति कर रही है। बिहार 1990 तक कांग्रेस शासित था, और देश के अग्रणी राज्यों में शुमार था। फ़िलहाल कांग्रेस चुनावी रेस से बाहर है, लेकिन जदयू और राजद के साथ दोबारा बिहार को गति दे सकती है।" सिद्धार्थ मोहन ने स्नातक और एम.बी.ए बंगलोरे से किया है, और फ़िलहाल बिहार में ही रह रहे हैं। 

बिहार में मध्यम वर्ग़िय पलायन से कहीं अधिक निम्न वर्ग़िय पलायन हुआ है। किसी भी महानगर में मज़दूर, रिक्शाचालक, काम करने वाली बाई या सिक्योरिटी गार्ड- अधिकतर मौक़ों पर- बिहार से होते हैं। निम्न वर्ग़िय पलायन 90 के दशक में ज़्यादा हुआ, जो अब भी लगातार जारी है। बिहार की 90 प्रतिशत जनता ग्रामीण है, और कई दशकों से कृषि से ही जीवन यापन कर रहे हैं। लेकिन पिछले दो दशक में देश भर में जो दशा कृषि उद्योग की हुयी है, उसका ख़ामियाज़ा प्रत्यक्ष रूप से बिहार के किसानों को भुगतना पड़ा है। 

गुड़िया दिल्ली में 'मेड' का काम करती हैं। मूल रूप से बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर की रहने वाली गुड़िया कहती हैं, "बिहार में बदलाव तो आया है, लेकिन वापस जाकर वहाँ कुछ काम नहीं हैं हमारे लिए। नीतीश कुमार ने 'छोटे जात' के लिए काफ़ी काम किया है। लालू यादव ने भी काम किया था। लेकिन ऐसा दिखाया गया कि सिर्फ़ गुंडागर्दी हुआ है।" गुड़िया जैसी कई और महिलायें हैं जो महानगर में पलायन तो कर चुकी हैं लेकिन बिहार में आए बदलाव को महसूस करने की बात करती हैं। 

एक और मुद्दा जो इस चुनाव से पूर्ण रूप से ग़ायब रहा वो है अपराधियों का चुनाव लड़ना। असोसीएशन फ़ॉर डेमोक्रैटिक रिफॉर्मस् (ए.डी.आर) के द्वारा पहले चार चरण में चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों की लिस्ट में 30-35% उम्मीदवारों के ऊपर आपराधिक मामलें लम्बित हैं। तक़रीबन सभी दलों में अपराधी चुनाव लड़ रहे हैं, और जनता को इससे बहुत फ़र्क़ नहीं पड़ रहा। सिद्धार्थ मोहन का कहना है, "अगर किसी दल में एक या दो विधायक के ऊपर आपराधिक केस है, लेकिन अगर वो दल स्थिर सरकार दे रहा है तो मुझे इससे बहुत दिक़्क़त नहीं है। स्थिर सरकार की ज़रूरत है।" 

प्रजातंत्र में अगर जनता को समझौते करने पड़े, तो ये प्रजातंत्र की हार है। चुनाव के मुद्दे अलग-अलग दलों ने तय किए हैं, ना की बिहार की जनता ने। इसलिए चुनाव कोई भी जीते, शायद हार जनता की होगी।

2 comments:

  1. On what parameters was Bihar ahead in 1990? Bihar was a backward state ever since Independence. I am a Bihari but we should not shy away from the truth. Politicians are the reflection of people who vote for them. Leaders sing the tune they know people want to hear and will vote for.

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  2. There is a book by Late Sachidanand Sinha "Eminent Bihari Contemporaries" published in the first decade of 20th centuries which says Bihar even when part of Bengal princely state was relatively backward.

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